झारखंड में आलू की खुदाई
झारखंड में आलू की खुदाई: ग्रामीण जीवन की जुझारू झलक
✍️ पाठ और फोटो: अशोक करन | ashokkaran.blogspot.com
झारखंड
की राजधानी रांची से लगभग 35 किलोमीटर
दूर, बेड़ो की कच्ची और
धूलभरी सड़कों से गुजरते हुए
मेरी नजर एक साधारण
लेकिन गहरी तस्वीर पर
पड़ी—कुछ स्कूली लड़कियाँ
खेत में आलू की
खुदाई में व्यस्त थीं।
मैं रुका, उनके पास गया
और बातचीत शुरू की।
जो मैंने जाना, वह विनम्र करने
वाला और प्रेरणादायक था।
ये किशोरियाँ स्कूल से लौटने के
बाद अपने वृद्ध परिजनों
की खेतों में मदद करती
हैं। हालांकि खुदाई की मात्रा अधिक
नहीं होती, लेकिन ये लड़कियाँ स्थानीय
बाज़ार में आलू बेचकर
अपने परिवार की आय में
योगदान देती हैं।
झारखंड
में आलू की खेती
कई चुनौतियों से जूझ रही
है:
➡️
कम उत्पादन
➡️
उच्च उपज वाली किस्मों
का सीमित उपयोग
➡️
फसल के बाद भंडारण
की कमजोर व्यवस्था
झारखंड
में आलू की औसत
पैदावार मात्र 11.7 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि राष्ट्रीय
औसत 21.5 टन प्रति हेक्टेयर है। पारंपरिक तकनीकों
पर निर्भर किसान—जिनके पास तकनीकी जानकारी
की कमी होती है—अक्सर कम कीमतों पर
अपनी उपज बेचने को
मजबूर हो जाते हैं।
लेकिन
अब बदलाव की बयार चल रही है।
रांची स्थित कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और दिव्यायन KVK जैसी संस्थाएं कुफ़री
पुखराज, कुफ़री कंचन और कुफ़री सिंदूरी जैसी उच्च गुणवत्ता
वाली किस्मों को बढ़ावा दे
रही हैं, जिनसे 400–450 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर तक उपज प्राप्त
की जा रही है।
डिजिटल ग्रीन की पहल के
तहत बांस-आधारित भंडारण
नवाचारों से फसल के
बाद होने वाले नुकसान
में भी कमी आई
है।
CG स्पेस
जैसी संस्थाओं का सहयोग किसानों
को उन्नत कृषि तकनीकों और
विपणन रणनीतियों के प्रशिक्षण में
मदद कर रहा है।
रांची के राजभवन में काले आलू की खेती और
एक ही पौधे पर
टमाटर और आलू उगाने जैसे प्रयोग क्षेत्र
की असीम संभावनाओं को
दर्शाते हैं।
आज झारखंड 7.33 हजार टन के योगदान के
साथ भारत के आलू
उत्पादन मानचित्र पर एक उभरता
हुआ नाम बन रहा
है—विशेष रूप से रांची
और सिंहभूम जैसे क्षेत्रों में।
जहां फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) और बनासकांठा (गुजरात) जैसे इलाके “आलू
सिटी” के नाम से
चर्चित हैं, वहीं झारखंड
जमीनी प्रयासों और विविधीकरण के
माध्यम से नई संभावनाओं
की ओर बढ़ रहा
है।
झारखंड
में एक औसत एकड़
भूमि से 100–140 क्विंटल तक आलू की
पैदावार हो सकती है।
कुशल किसान यदि आधुनिक तकनीकों
का प्रयोग करें, तो यह 170 क्विंटल
प्रति एकड़ तक पहुँच सकती
है। बोआई के 90 से
120 दिनों के भीतर तैयार
होने वाली यह फसल
यदि दक्षता से की जाए,
तो अत्यधिक लाभकारी बन सकती है।
आलू
केवल भारतीय रसोई का प्रमुख
हिस्सा नहीं है, बल्कि
यह आयरिश, पेरुवियन, पूर्वी यूरोपीय और भारतीय व्यंजनों के बीच एक
सांस्कृतिक सेतु भी है।
कुछ सामाजिक या धार्मिक कारणों
से भले ही सभी
लोग इसे न खाएं,
लेकिन इसकी बहुपयोगिता—उबालने,
सेंकने, तलने या भूनने
के रूप में—इसे
दुनिया भर में पसंदीदा
बनाती है। कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और मिनरल्स से भरपूर आलू
आज भी दुनिया की
सबसे कीमती फसलों में से एक
है।
📸 फोटो में: झारखंड के ग्रामीण इलाके
में आलू की खुदाई
करती स्कूली लड़कियाँ।
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Nice information.
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